गुप्तकालीन प्रशासन – भारत के समान्य ज्ञान की इस पोस्ट में हम गुप्तकालीन प्रशासन | Gupt Prashasan in Hindi, Facts About Gupta Empire के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी और नोट्स प्राप्त करेंगे ये पोस्ट आगामी Exam REET, RAS, NET, RPSC, SSC, india gk के दृस्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण है
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गुप्तकालीन प्रशासन | Gupt Prashasan in Hindi
इस समय राजा के दैवी उत्पत्ति का सिद्धान्त (जो कि मनुस्मृति में है) लोकप्रिय नहीं रहा। बाणभट्ट ने दैवी उत्पत्ति के सिद्धान्त का तिरस्कार किया है।
राजपद वंशानुगत था, पर राजगद्दी हमेशा बड़े पुत्र को नहीं मिलती थी।
राजा को धर्म के अनुसार वर्णाश्रमधर्म का रक्षक बताया गया है।
राजा को विष्णु के अवतार के रूप में देखा जाता था।
532 ई. के यशोवर्मन के अभिलेख में शासक को चारों वर्णों के हितों का रक्षक बताया गया है।
मौर्य काल के केन्द्रीय नियन्त्रण के विपरीत गुप्त प्रशासन में विकेन्द्रीकरण की प्रवृत्ति बढ़ने लगी।
गुप्तकाल में प्रारम्भ में अधिकारियों को नकद वेतन मिलता था, परन्तु बाद में भूमिदान की प्रथा भी चल पड़ी।
गुप्त प्रशासन की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन
यह महत्त्वपूर्ण है कि सातवाहन काल में भूमि अनुदान ब्राह्मणों व पुरोहितों को ही दिया जाता था, किन्तु गुप्त काल के अन्त में प्रशासनिक अधिकारियों को भी भूमि अनुदान दिया जाने लगा।
छठी शताब्दी के आते-आते कुमारामात्य जैसे अधिकारी भी सम्राट की अनुमति के बिना भूमिदान करने लगे। भूमि पर राजस्व के साथ-साथ प्रशासनिक व न्यायिक अधिकार भी दानगृहीता को दे दिये जाते थे, जिससे विकेन्द्रीकरण व सामन्तवाद को बढ़ावा मिला। सामन्त अपनी भूमि के वास्तविक स्वामी बन गये।
गुप्त शासक पराजित शासकों के साम्राज्य का अधिग्रहण करने के. स्थान पर उनसे अधीनता स्वीकार करवा कर उनसे वार्षिक कर तथा उपहार लेकर हो सन्तुष्ट रहे, उनके आन्तरिक शासन में हस्तक्षेप नहीं किया। अतः गुप्त राजनैतिक व्यवस्था सामन्ती हो गई थी। इससे विकेन्द्रीकरण की प्रवृत्ति बढ़ने लगी।
सामन्तों का सम्राट से मात्र इतना संपर्क था कि वे समय-समय पर सम्राट को उपहार भेट आदि प्रस्तुत कर सम्राट के प्रति निष्ठा व्यक्त करते रहते थे।
गुप्त प्रशासन में मौर्य, सातवाहन, शक व कुषाण प्रशासन के अंश थे।
गुप्त नौकरशाही मौर्य नौकरशाही जितनी व्यापक नहीं थी, क्योंकि गुप्त शासकों ने मौयों की भांति आर्थिक गतिविधियों पर राज्य का अधिक नियन्त्रण नहीं किया।
कभी-कभी सम्राट एक ही व्यक्ति को कई पदों पर नियुक्त कर देता था। उदाहरणार्थ हरिषेण नामक व्यक्ति कुमारामात्य, संधिविग्रहिक और महादण्डनायक नामक तीनों पदों पर था।
गुप्तकाल में उच्च पद बाद में वंशानुगत होने लगे। हरिषेण व उसका पुत्र वीरषेण समुद्रगुप्त व चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के काल में अमात्य थे। के इसी तरह पर्णदत्त व उसका पुत्र चक्रपालित स्कन्दगुप्त के काल में सौराष्ट्र में अधिकारी थे।
केन्द्रीय प्रशासन
केन्द्रीय प्रशासन का प्रमुख सम्राट होता था।
सम्राटों ने महाराजाधिराज, परमभट्टारक, परमेश्वर, एकराट जैसी बड़ी-बड़ी उपाधियां धारण की तथा अश्वमेध यज्ञ के द्वारा अन्य छोटे शासकों पर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध की।
प्रयाग प्रशस्ति में राजसभा का उल्लेख है।
गुप्त अभिलेखों में अप्रतिरथ की उपाधि केवल समुद्रगुप्त और चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के लिये काम ली गई है। अप्रतिरथ का अर्थ है ‘अद्वितीय यौद्धा’।
मंत्री तथा अमात्य राजकीय कार्य में सम्राट को सहायता देते थे।
कामन्दक के नीतिसार में मंत्रियों व अमात्यों के बीच अन्तर स्पष्ट किया गया है। मंत्री का मुख्य काम राजा को किसी गूढ़ विषय पर मन्त्रणा देना था।
गुप्त युग में मंत्रिपरिषद् नामक संस्था मौजूद थी। कामंदक व कालिदास दोनों मंत्रिपरिषद् का उल्लेख करते हैं।
अमात्य आधुनिक काल की ब्यूरोक्रेसी के समान थे। वे राज्य के बड़े अधिकारी थे।
कात्यायन स्मृति के अनुसार अमात्यों की नियुक्ति ब्राह्मण वर्ग से होनी चाहिये।
अमात्या का नियुक्ति सम्राट स्वयं करता था।
गुप्त साम्राज्य में कुमारामात्य सबसे बड़ा अधिकारी होता था। उनको राजा द्वारा केन्द्रीय प्रान्तों में नियुक्त किया जाता था व उन्हें नकद वेतन मिलता था।
गुप्त शासकों का राज चिह्न गरुड़ था।
गुप्तकालीन अधिकारी
प्रतिहार | अन्तःपुर का रक्षक
|
महाप्रतिहार | राजमहल प्रधान सुरक्षा अधिकारी
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महाबलाधिकृत/महासेनापति
|
सेना का सर्वोच्च अधिकारी
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महादण्डनायक | मुख्य न्यायाधीश |
महासंधिविग्रहिक | युद्ध व शान्ति का अधिकारी,विदेशमंत्री |
पुस्तपाल | भूमि का लेखा-जोखा रखने वाला अधिकारी |
दण्डपाशिक | पुलिस अधिकारी |
विनयस्थितिस्थापक | नैतिक एवं धार्मिक मामलों का अधिकारी। |
महाअक्षपटलिक | – आय-व्यय का लेखा-जोखा रखने वाला अधिकारी
|
शौल्किक | सीमा शुल्क विभाग का प्रधान |
गोल्मिक | वन अधिकारी |
ध्रुवाधिकरणिक | राजस्व एकत्र करने वाला अधिकारी |
अमात्य | नौकरशाह |
कुमारामात्य | सर्वोच्च प्रशासनिक अधिकारी |
पुरपाल | – नगर का मुख्य अधिकारी |
महाभंडागाराधिकृत | राजकीय कोष का प्रधान |
अग्रहारिक | दान विभाग का प्रधान |
रणभाण्डागारिक | सेना के सामान की व्यवस्था रखने वाला पदाधिकारी
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करणिक | लिपिक |
गुप्तकालीन प्रसिद्ध मंत्री
नाम | पद |
वीरसेन | चन्द्रगुप्त द्वितीय का सन्धिविग्रहिक
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पृथ्वीसेन | कुमार गुप्त प्रथम का मंत्री (शिखर स्वामी का पुत्र)
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हरिषेण | समुद्रगुप्त का संधि विग्रहिक,महादण्डनायक व कुमारामात्य
|
शिखरस्वामी | चन्द्रगुप्त द्वितीय का मंत्री |
आम्रकार्द्दव | चन्द्रगुप्त द्वितीय का सेनापति |
प्रान्तीय प्रशासन
- प्रान्तों को भुक्ति/अवनि / देश कहा जाता था सीमान्त प्रान्त का प्रमुख नगोप्ता व आन्तरिक प्रान्त का प्रमुख उपरिक (भोगिक या भोगपति) होता था।
- भुक्ति शब्द सर्वप्रथम प्रयाग-प्रशस्ति में मिलता है।
- कुमारगुप्त प्रथम के समय पुण्ड्वर्धन (बंगाल) प्रान्त का प्रमुख चिरादत्त था।
जिला प्रशासन:–
भुक्ति के नीचे विषय (जिला) नामक प्रशासनिक इकाई होती थी। विषय का प्रमुख प्रशासनिक अधिकारी विषयपति कहलाता था। विषयपति की नियुक्ति संबंधित प्रान्त के उपरिक द्वारा की जाती थी।
कुमारगुप्त के दामोदरपुर ताम्रपत्र में वर्णित है, कि विषयपति को सलाह देने के लिये विषय परिषद् होती थी, विषय परिषद् या विषय समिति के सदस्य विषय महत्तर कहे जाते थे।
- विषय परिषद् नगर सभा के समान थी। इसके सदस्य नगर श्रेष्ठ,सार्थवाह, प्रथम कुलिक (मुख्य शिल्पी) व प्रथम कायस्थ होते थे।
- नगरश्रेष्ठि– व्यापारी / श्रेणियों का प्रधान ।
- सार्थवाह– व्यावसायियों का प्रधान। प्रथम कायस्थ- लिपिकों का प्रमुख।
- विषयपति के प्रधान कार्यालय (अधिष्ठान) के अभिलेखों को सुरक्षित रखने वाले अधिकारी को ‘पुस्तपाल’ कहा जाता था।
ग्राम प्रशासन:–
विषय के नीचे वीथी (तहसील) तथा वीथी के नीचे पैठ (ग्राम समूह की छोटी इकाई) इकाई थी।
पेठ का उल्लेख संक्षोभ के खोह अभिलेख में है।
प्रशासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम होती थी।ग्राम समूह की छोटी इकाइयों को पेठ कहते थे। ग्राम सभा को मध्य भारत में पंचमण्डली कहा जाता था।
ग्राम सभा गाँव की सुरक्षा, निर्माण कार्य, राजस्व वसूली कर राजकोष में जमा कराना आदि कार्य करती थी। ग्राम का सर्वोच्च अधिकारी ग्रामिक या महत्तर होता था। उसकी सहायता के लिये ग्राम सभा होती थी।
दामोदरपुर ताम्रपत्र संख्या 3 में ग्राम सभा के कुछ पदाधिकारियों के नाम जैसे महत्तर, अष्टकुलाधिकारी (भूमि क्रय विक्रय सम्बन्धी), ग्रामिक, कुटुम्बिन आदि मिलते हैं।
तमवारक भी ग्राम सभा से जुड़ा अधिकारी था।
नगर का प्रधान अधिकारी पुरपाल या द्रांगिक कहा जाता था। वह कुमारामात्य की श्रेणी का अधिकारी होता था।
जूनागढ़ लेख से पता चलता है कि गिरनार नगर का पुरपाल चक्रपालित था।
न्याय प्रशासन
सम्राट की अनुपस्थिति में सर्वोच्च न्यायधीश प्राइविवाक होता था।
गुप्तकाल में न्याय व्यवस्था पहले की तुलना में अधिक विकसित थी।
स्मृतियों में गुप्तकालीन न्याय प्रणाली का उल्लेख है, लेकिन गुप्त अभिलेखो में न्याय प्रणाली का उल्लेख नहीं है।
उत्तराधिकार के बारे में व्यापक कानून बने ।
सम्राट सर्वोच्च न्यायाधीश होता था तथा न्याय आसन को धर्मासन्न कहते थे।
की श्रेणियों के अलग न्यायालय व अपने कानून होते थे जो अपने सदस्यों के विवादों का निपटारा करते थे।
स्मृतियों में पूग व कुल नामक संस्थाओं के भी उल्लेख मिलते हैं, अपने सदस्यों के विवादों का फैसला करती थी।
पूग नगर में रहने वाली विभिन्न जातियों की समिति होती थी, जबकि कुल समान परिवार के सदस्यों की समिति थी।
गाँवों में ग्राम पंचायत न्याय कार्य करती थी।
गुप्त अभिलेखों में न्यायाधीशों को दण्डनायक, महादण्डनायक सर्वदण्डनायक कहते थे।
फाह्यान के विवरण के अनुसार दण्डविधान कोमल था तथा शारीरिक यातनायें व मृत्युदण्ड नहीं दिये जाते थे।
बार-बार राजद्रोह करने वाले व्यक्ति का दाहिना हाथ काट लिया जाता था।
बृहस्पति स्मृति के अनुसार गुप्त काल में पहली बार दीवानी और फौजदारी कानून भलीभांति परिभाषित एवं पृथक् हुए। प्रतिष्ठित स्थायी न्यायालय था।
मृच्छकटिकम में कायस्थ का उल्लेख न्यायालय की कार्यवाही के लेखक के रूप में हुआ है।
पुलिस पुलिस विभाग के अधिकारियों में उपरिक, दशापराधिक,चौरोद्धरणिक, दण्डपाशिक आदि प्रमुख थे।
सेना:-
सेना का सर्वोच्च अधिकारी महाबलाधिकृत कहलाता था। सेना के चार अंग पैदल सेना, रथ सेना, अश्वारोही तथा गज सेना थे।
गजसेना का प्रधान महापीलुपति तथा अश्वसेना का प्रधान भटाश्वपति कहलाता था।
पैदल सेना की छोटी टुकड़ी को चमूय तथा साधारण सैनिक को चाट कहा जाता था।
सेना के साजोसामान की देखरेख करने वाला अधिकारी ‘रणभाण्डागारिक’ कहलाता था।
रथों का महत्त्व समाप्त हो गया व घोड़ों का महत्व बढा।
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