गुप्त साम्राज्य (Gupta Dynasty in Hindi) – भारत के समान्य ज्ञान की इस पोस्ट में हम गुप्त साम्राज्य (Gupta Dynasty in Hindi) Facts About Gupta Empire के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी और नोट्स प्राप्त करेंगे ये पोस्ट आगामी Exam REET, RAS, NET, RPSC, SSC, india gk के दृस्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण है
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गुप्त साम्राज्य (Gupta Dynasty in Hindi)
मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद भारत राजनैतिक एकता समाप्त हो गई। इस बीच कुषाण वंश व सातवाहन वंश ने क्रमशः उत्तरी व दक्षिणी भारत में स्थिरता लाने का प्रयास किया किन्तु वे अपने-अपने क्षेत्रों में ही सीमित रहे।
- चौथी शताब्दी के प्रारम्भ में पूर्वी भारत में एक नए राजवंश का उदय हुआ जो गुप्त वंश (गुप्त साम्राज्य) के नाम से जाना जाता था। गुप्त संभवतः कुषाणों के सामन्त थे।
- गुप्तकाल भारत का पेराक्लीज युग (Pericles age) था। सर्वप्रथम के. एम. मुंशी ने स्वर्ण युग कहा है। पुराणों में गुप्तों को मागध गुप्त कहा गया है।
- मैक्समूलर ने गुप्तकालीन साहित्य को पुनर्जागरण काल कहा है, जबकि आर. डी. बनर्जी ने पुनर्जागरण कला कहा है।
- गुप्तों की उत्पत्ति से संबंधित प्रश्न बड़ा विवादास्पद है।
- वज्जिका द्वारा लिखित कीर्तिकौमुदी नाटक में लिच्छिवियों को मलेच्छ तथा चन्द्रगुप्त प्रथम को कारस्कर कहा गया है।
- के पी. जायसवाल ने इसी ग्रंथ के आधार पर गुप्तों को शुद्र माना है।
- चन्द्रगोमिन के व्याकरण में गुप्तों को जाट (जर्ट) कहा गया है। इसके आधार पर ही जायसवाल गुप्तों को जाट मानते हैं।
गुप्तों की उत्पत्ति के बारे में विभिन्न विद्वानों के मत निम्न हैं-
विद्वान
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मत |
1. के. पी. जायसवाल
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– शूद्र
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2. एलन, अल्तेकर, रोमिला थापर, – आयंगर, रामशरण शर्मा | वैश्य |
3.हेमचन्द्र राय चौधरी
दशरथ शर्मा
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ब्राह्मण
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4. रमेश चन्द्र मजूमदार, ओझा,चटोपाध्याय, वासुदेव उपाध्याय
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– क्षत्रिय
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चन्द्रगुप्त द्वितीय की पुत्री प्रभावती गुप्ता ने अपने पूना ताम्रपत्र में धारण गोत्र का उल्लेख किया है। यह गोत्र उसके पिता का ही होगा, क्योंकि उसके पति वाकाटक नरेश रूद्रसेन द्वितीय विष्णु वृद्धि गोत्र के ब्राह्मण थे। अतः इस आधार गुप्त धारण गोत्र के ब्राह्मण थे।
- गुप्तों का आदि पुरुष श्री गुप्त था। उसका पुत्र घटोत्कच था।
- प्रभावती गुप्त के पूना एवं ऋद्धपुर ताम्र पत्रों में घटोत्कच को गुप्तों का आदि पुरूष/ आदिराज कहा गया है।
- स्कन्दगुप्त के सुपिया (रीवा) के लेख में गुप्त वंश को घटोत्कच वंश कहा गया है।
चन्द्रगुप्त प्रथम (319-350 ई.)
- चन्द्रगुप्त प्रथम ने गुप्तवंश को एक शक्तिशाली राज्य के रूप में प्रतिष्ठित किया। इसे गुप्त वंश का वास्तविक संस्थापक माना जाता है।
- हेमन्द्र राय चौधरी ने इसे द्वितीय मगध साम्राज्य का संस्थापक कहा है।
- चन्द्रगुप्त प्रथम की राजधानी पाटलिपुत्र थी, यद्यपि प्रारम्भ में वैशाली चन्द्रगुप्त प्रथम के साम्राज्य में नहीं था।
- गुप्त वंशावली में चन्द्रगुप्त प्रथम पहला शासक था जिसने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की। श्रीगुप्त ने महाराज की उपाधि धारण की थी।
- इसने एक नए संवत् गुप्त संवत् (319-20 ई.) को चलाया। यहाँ तिथि वल्लभी संवत की भी है।
- इसने लिच्छवि राजकुमारी कुमारदेवी से विवाह किया। इस विवाह से वैशाली का क्षेत्र चन्द्रगुप्त के अधिकार में आ गया।
- गुप्तों में सर्वप्रथम सिक्के (सोने के सिक्के) चन्द्रगुप्त प्रथम ने चलाए।
- इन सिक्कों से इस विवाह की भी पुष्टि होती है। इन सिक्कों को राजा रानी, लिच्छवी प्रकार, विवाह प्रकार, राज दम्पति व देवी प्रकार के सिक्के भी कहते हैं।
समुद्रगुप्त (350-375 ई.)
- समुद्रगुप्त के समय गुप्त साम्राज्य का सर्वाधिक विस्तार हुआ।
- फादर हैरास ने सर्वप्रथम यह मत प्रतिपादित किया कि समुद्रगुप्त को अपने भाई काच के विरूद्ध उत्तराधिकार युद्ध करना पड़ा।
- कुछ विद्वान काच नामक शासक का समीकरण भी समुद्रगुप्त से करते हैं।
- फ्लीट ने सर्वप्रथम प्रतिपादित किया कि काच नामांकित मुद्रा समुद्रगुप्त की है।
- ऋद्धपुर लेख में समुद्रगुप्त को तत्पादपरिगृहित कहा गया है। (चन्द्रगुप्त प्रथम द्वारा राज्य त्याग कर समुद्रगुप्त को राजा बनाना।)
- प्रयाग प्रशस्ति के अनुसार समुद्रगुप्त को भाईयों / तुल्यकुलज उत्तराधिकार युद्ध लड़ना पड़ा।
Note – प्रयाग प्रशस्ति में समुद्रगुप्त की उपाधि- कविराज, पृथिव्याम प्रतिरथ धर्म प्राचीर बन्ध, सर्वराजोच्छेता, लिच्छवि दौहित्र
- प्रयाग प्रशस्ति के अनुसार गन्धवं विद्या में प्रवीणता के कारण समुद्रगुप्त ने इन्द्र के आचार्य कश्यप, नारद एवं तुम्बरू को भी लज्जित कर दिया।
- समुद्रगुप्त प्रसन्न होने पर कुबेर तथा रूष्ट होने पर यमराज के समान था। यह जानकारी एरण लेख में मिली है।
- एरण लेख में समुद्रगुप्त की रानी का नाम दत्तदेवी बताया गया एरण समुद्रगुप्त का भोग नगर था।
- गरूड़ मुद्राओं में समुद्रगुप्त को सौ युद्धों का विजेता कहा गया है।
- वामन के काव्यालंकारसूत्र में समुद्रगुप्त का नाम चन्द्रप्रकाश है।
- समुद्रगुप्त की एक उपाधि विक्रमांक मिलती है।
- कृष्णचरित का रचयिता समुद्रगुप्त था।
- धुवभूति समुद्रगुप्त का खाद्यटपाकिक (राजकीय भोजनालय अध्यक्ष ) था।
- बौद्ध विद्वान वसुबन्धु एवं असंग समुद्रगुप्त के दरबार में थे।
- वसुबन्धु ने अभिधर्मकोष एवं असंग ने योगाचार लिखी।
- समुद्रगुप्त के लिये ‘सर्वराजोच्छेता’ के विरुद का प्रयोग हुआ है।
- चीनी स्रोतों के अनुसार श्रीलंका के शासक मेघवर्मन ने समुद्रगुप्त के पास दूत भेज कर ‘गया’ में एक बौद्ध मंदिर के निर्माण की अनुमति प्राप्त की।
- विन्सेण्ट स्मिथ ने समुद्रगुप्त को भारत का नेपोलियन कहा है।
- समुद्रगुप्त ने कविराज की उपाधि धारण की तथा उसे पराक्रमांक भी कहा गया है। उसके कुछ सिक्कों पर उसे वीणा बजाते हुए दिखाया गया है।
- समुद्रगुप्त के गया और नालन्दा ताम्रपत्र लेख में उसे परमभागवत कहा गया है, किन्तु फ्लीट एवं डी. सी. सरकार ने इन ताम्र पत्रों को प्रमाणित नहीं माना है।
समुदगुप्त की दिग्विजय: –
इसकी विजयों का उल्लेख हरिषेण की प्रयाग प्रशस्ति में मिलता है।
आर्यावर्त का प्रथम युद्ध:
समुन्द्रगुप्त ने आर्यावर्त के प्रथम युद्ध में अच्युत, नागसेन व गणपतिनाग का उन्मूलन कर दिया एवं कोतकुल में उत्पन्न नरेश को बन्दी बना लिया में तथा पुष्प नामक नगर में आमोद-प्रमोद किया, जिनका उल्लेख प्रयाग प्रशस्ति की 13वीं एवं 14वीं पंक्ति (7 वाँ श्लोक) में है।
समुद्रगुप्त द्वारा आर्यावर्त के प्रथम युद्ध में पराजित राजाओं के नाम (उन्मूल्याच्युतनागसेन. [ग दण्डग्राह्यतैव कोतकुलजं पुष्पान्ह्वये क्रीडिता।):
- अच्युत
- नागसेन
- कोतकुलज
- ग….. (संभवतः गणपति नाग)
प्रयाग प्रशस्ति के वें श्लोक समुद्रगुप्त की सामरिक विजय नागो के विरूद्ध लडे युद्ध का वर्णन है।
दक्षिणापथ का युद्धः
दक्षिणापथ के युद्ध में समुद्रगुप्त ने बारह राजाओं को पराजित किया। प्रयाग प्रशस्ति की 19वीं व 20वीं पंक्ति में दक्षिणापथ के 12 राजाओं व राज्यों का उल्लेख मिलता है।
समुद्रगुप्त द्वारा विजित दक्षिण के बारह राज्य व उनके राजा
- कोसल का महेन्द्र
- महाकान्तार का व्याघ्रराज
- कौशल का राजा मण्टराज
- पिष्टपुर का महेन्द्रगिरि
- कोट्टूर का स्वामीदत
- एरण्डपल्ल का दमन
- कांची का विष्णुगोप
- अवमुक्त का नीलराज
- वेंगी का हस्तिवर्मा
- पालक्क का उग्रसेन
- देवराष्ट्र का कुबेर
- कुस्थलपुर का धनंजय
इन राज्यों के प्रति समुद्रगुप्त ने ग्रहण मोक्षानुग्रह की नीति अपनाई। इस नीति के तहत इन राज्यों को जीतकर वापस लौटा दिया व उनसे भेंट-उपहार आदि प्राप्त किए।
कालीदास ने रघुवंश नाटक में इस तरह की विजय को धर्म विजय कहा है एवं राय चौधरी ने भी दक्षिण विजय को धर्म विजय कहा है।
कांची का विष्णुगोप दक्षिण अभियान का दक्षिणतम अन्तिम शासक था।
आर्यावर्त का द्वितीय युद्धः
आर्यावर्त के द्वितीय युद्ध में समुद्रगुप्त ने नौ राजाओं को पराजित किया। प्रयाग प्रशस्ति की इक्कीसवी पंक्ति में इन नौ राजाओं का उल्लेख हुआ है। समुद्रगुप्त द्वारा आर्यावर्त के द्वितीय युद्ध में पराजित राजा
- रूद्रदेव
- मंत्तिल
- नागदत्त
- चन्द्रवर्मा
- गणपतिनाग
- नागसेन
- अच्युत
- नन्दि
- बलवर्मा
इन राजाओं के प्रति समुद्रगुप्त ने प्रसभोद्धरण की नीति अपनाई। इस नीति का अर्थ है ‘जड़ मूल से उखाड़ फेंकना’। आर्यावर्त के दूसरे अभियान के बाद एरण विजय की, जो उत्तर भारत की अन्तिम विजय थी।
आटविक राज्यों की विजयः
प्रयाग प्रशस्ति की इक्कीसवीं पंक्ति में आटविक राज्यों की विजय का भी उल्लेख है। आटविक राज्य उत्तरप्रदेश के गाजीपुर से जबलपुर (मध्यप्रदेश) तक फैले 18 राज्य थे। इनके प्रति परिचारकीकृत नीति (दास बनाने की नीति अपनाई।
सीमावर्ती राज्यों की विजय:
उत्तर-पश्चिम एवं उत्तर-पूर्व के सीमावर्ती राज्यों एवं गणतन्त्रीय राज्यों (प्रयाग प्रशस्ति की 22वीं पंक्ति में) ने सर्वकरदान, आज्ञाकरण एवं प्रणामागमन के द्वारा समुद्रगुप्त की सेवा की।
- सर्वकरदान:- सभी प्रकार के कर देते थे।
- आज्ञाकरण:- समुद्रगुप्त की आज्ञा का पालन करते थे।
- प्रणामागमन:- दरबार में व्यक्तिगत उपस्थिति देते थे।
समुद्रगुप्त द्वारा प्रत्यन्त (सीमावर्ती) राज्यों की विजय
उत्तरी व उत्तरी पूर्वी सीमा पर स्थित ये पाँच राजतंत्रात्मक राज्य थे-
राज्य | वर्तमान साम्य |
समतट | पूर्वी बंगाल (बांग्लादेश) का समुद्रतटवर्ती प्रदेश
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डवाक | असम स्थित डबोक स्थान या ढाका व चटगाँव
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कामरूप | असम |
कर्तृपुर | कुमायूँ, गढ़वाल और रूहेलखण्ड के क्षेत्र
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नेपाल | आधुनिक नेपाल राज्य
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समुद्रगुप्त की पश्चिमी व उत्तरी-पश्चिमी सीमा पर स्थित नौ गणराज्य
- मालव
- आर्जुनायन
- यौधेय
- मद्रक
- आभीर
- प्रार्जुन
- सनकानीक
- काक
- खारपरिक
संभवतः इन गणराज्यों ने स्वेच्छा से समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार की तथा इसके प्रति भी प्रत्यन्त राज्यों वाली सर्वकरदान आज्ञाकरणप्रणामागमन नीति अपनाई।
विदेशी शासकों पर विजयः-
- समुद्रगुप्त के समकालीन विदेशी शासक केदार कुषाण (पेशावर), शक शासक रूद्धसिंह तृतीय एवं पूर्वी भारत का शासक मुख्ण्ड आदि थे।
- शक, कुषाण आदि विदेशी शक्तियों ने समुद्रगुप्त की अधीनता निम्न तीन विधियों से मानी (प्रयाग प्रशस्ति की 23वीं व 24वीं पंक्ति)
- आत्म निवेदन– स्वयं दरबार में उपस्थित होकर
- कन्योपायन– अपनी पुत्रियों का गुप्त राजवंश में विवाह कर
- गरुत्मंदक स्वविषयभुक्तिशासनयाचना– अपने विषय या भुक्ति के लिये शासनादेश प्राप्त करना
प्रयाग प्रशस्ति के अनुसार समुद्रगुप्त की दिग्विजयों का उद्देश्य ‘धरणिबन्ध’ था। उसकी उत्तरी भारत में अपनाई गई नीति ‘प्रसभोद्धरण’ (जड़ मूल से उखाड़ फेंकना) तथा दक्षिणापथ की नीति ‘ग्रहणमोक्षानुग्रह’ कहलाती है।
अश्वमेध यज्ञः-
विजयों के उपलक्ष्य में समुद्रगुप्त ने अश्वमेध यज्ञ किया। यह यज्ञ प्रयाग प्रशस्ति लिखे जाने के बाद किया गया अतः प्रयाग प्रशस्ति में इसका उल्लेख नहीं है। समुद्रगुप्त द्वारा किये गये अश्वमेध यज्ञ की जानकारी अश्व तथा स्कन्दगुप्त के भीतरी लेख से मिलती है।
- अश्वमेध करने वाले गुप्त शासक समुद्रगुप्त एवं कुमारगुप्त प्रथम
- पूना ताम्रपत्र में समुद्रगुप्त को “चिरकाल से छोड़े गए अश्वमेध यज्ञ करने वाला” कहा गया है।
समुद्रगुप्त की छः प्रकार की स्वर्ण मुद्राएं प्राप्त होती हैं:
- गरूड / ध्वज / पताका/दण्डधारी प्रकार–
- धनुर्धारी प्रकार– इसके मुख भाग पर अप्रतिरथ उपाधि अंकित है।
- परशु प्रकार– इसके पृष्ठ भाग पर समुद्रगुप्त की ‘कृतान्त परश’ नामक उपाधि अंकित है।
- अश्वमेध प्रकार– इसके पृष्ठ भाग पर राजमहिषी (दत्तदेवी) की आकृति के साथ अश्वमेध पराक्रमः अंकित है। अश्वमेध मुद्रा पर समुद्रगुप्त का अंकन नहीं है।
- व्याघ्र हनन प्रकार– इसके मुख भाग पर व्याघ्र पराक्रमः की उपाधि तथा पृष्ठ भाग पर मकरवाहिनी गंगा की आकृति के साथ ‘राजा समुद्रगुत अंकित है
- वीणावादन प्रकार– वीणावादन मुद्रा के पृष्ठ भाग पर हाथ में कार्नकोपियों तथा पाश लिए लक्ष्मी का अंकन है।
व्याघ्रहनन एवं वीणावादन मुद्रा पर विदेशी प्रभाव नहीं है।
प्रयाग प्रशस्ति (इलाहाबाद स्तम्भ लेख):–
प्रयाग प्रशस्ति के रचनाकार हरिषेण थे, जब कि इसे स्तम्भ पर उत्कीर्ण तिलभट्ट ने कराया। प्रयाग प्रशस्ति अशोक के कौशाम्बी अभिलेख पर उत्कीर्ण है। इसमें बौद्ध संघ में विभेद को रोकने के लिए कौशाम्बी के महामात्रों को आदेश दिया गया है।
मध्यकाल में अकबर ने इसे कौशाम्बी से मंगवाकर इलाहाबाद के किले में लगवा दिया था। इसमें 33 पंक्तियाँ है, प्रयाग प्रशस्ति को प्रकाश में लाने का श्रेय ए ट्रायर को है। इसे पाषाण पर खुदी समुद्रगुप्त की आत्मकथा कहते हैं, फ्लीट ने इसे मरणोत्तर अभिलेख एवं रोमिला थापर ने ऐतिहासिक पुनराकन कहा है।
- प्रयाग प्रशस्ति में समुद्रगुप्त की धर्मप्रचारबन्धु उपाधि का उल्लेख मिलता है।
- प्रयाग प्रशस्ति ब्राह्मी लिपि एवं विशुद्ध संस्कृत में लिखी हुई है। यह गद्य में। एवं पद्य (चम्पू शैलो) दोनों में लिखा हुआ है।
- इसमें समुद्रगुप्त अश्वमेध यज्ञ का उल्लेख नहीं है तथा यह बिना तिथि का लेख है।
- प्रयाग प्रशस्ति पर अकबर के दरबारी बीरबल का लेख व मुगल सम्राट जहाँगीर का भी लेख मिला है। जहाँगीर का लेख अब्दुल्ला मुश्कि कलाम ने लिखा था।
- कुमारदेवी का सर्वप्रथम उल्लेख प्रयाग प्रशस्ति में है।
- प्रशस्ति में समुद्रगुप्त को पृथ्वी पर निवास करने वाला देवता गया है।
चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य (375-415 ई.)
समुद्रगुप्त एवं चन्द्रगुप्त द्वितीय के बीच रामगुप्त नामक निर्बल शासक का उल्लेख मिलता है। हालांकि गुप्त अभिलेखों की वंशावली में रामगुप्त का उल्लेख नहीं है। सर्वप्रथम 1924 ई. में राखालदास बनर्जी ने रामगुप्त की ऐतिहासिकता सिद्ध करने का प्रयास किया।
विशाखादत की कृति देवीचन्द्रगुप्तम् में रामगुप्त की कथा का वर्णन है।
देवीचन्द्रगुप्तम नाटक मूलरूप से उपलब्ध नहीं है। भोज के शृंगार प्रकाश वै से इसके कुछ उद्धरण मिलते हैं।
बाणभट्टकृत हर्षचरित, भोज की शृंगार प्रकाश, शंकराचार्य कृत हर्षचरित की टीका, राजशेखर की काव्यमीमांसा तथा अरबी लेखक अबुल हसन अली कृत मुजमल-उल-तवारीख में भी रामगुप्त का उल्लेख है। इनके अनुसार चन्द्रगुप्त द्वितीय अपने भाई रामगुप्त को हटाकर गद्दी पर बैठा तथा रामगुप्त की पत्नी ध्रुवदेवी या ध्रुवस्वामिनी से विवाह किया।
राष्ट्रकूट वंश के काम्बे एवं संजन अभिलेख में रामगुप्त की ऐतिहासिकता का अभिलेखीय साक्ष्य है। दुर्जनपुर (बेसनगर) से तीन जैन मूर्तियाँ मिली हैं, इन मूर्तियों पर प्राप्त लेखों में रामगुप्त को महाराजधिराज कहा गया है।
चन्द्रगुप्त के समय तीर भुक्ति (बसाढ़-वैशाली) का गवर्नर गोविन्दगुप्त था, जो कुमारगुप्त का भाई था।
उपाधि:
चन्द्रगुप्त द्वितीय का अन्य नाम देवश्री, देवगुप्त, देवराज आदि हैं। इसने विक्रमांक, विक्रमादित्य, नरेन्द्रचन्द्र श्रीविक्रम सिंह, सिंह विक्रम, अजित विक्रम, परमभागवत आदि उपाधियां धारण की।
- चन्द्रगुप्त द्वितीय को लेखों में तत्परिगृहीत (समुद्रगुप्त द्वारा चुना हुआ) कहा गया है।
- गढ़वा अभिलेख में चन्द्रगुप्त द्वितीय को परमभागवत कहा गया है। परमभागवत उपाधि धारण करने वाला वह प्रथम गुप्त सम्राट था।
- चन्द्रगुप्त द्वितीय के उदयगिरि गुहालेख में चन्द्रगुप्त को राजाधिराजर्षि कहा गया है।
- परमभागवत की उपाधि धारण करने वाले गुप्त शासक- चन्द्रगुप्त द्वितीय, कुमारगुप्त प्रथम, स्कन्दगुप्त, नरसिंहगुप्त बालादित्य।
शक विजय:–
चन्द्रगुप्त द्वितीय ने शक शासक रूद्रसिंह तृतीय को पराजित कर पश्चिमी भारत से शकों का उन्मूलन कर दिया। शक विजय के फलस्वरूप उसने चांदी के व्याघ्र (सिंह निहन्ता) शैली के सिक्के चलवाए तथा विक्रमादित्य की उपाधि धारण की। इन चाँदी के सिक्कों का भार 32 से 36 ग्रेन तक है।
- भारतीय अनुश्रुतियों में चन्द्रगुप्त द्वितीय को शकों पर विजय के कारण शकारि भी कहा गया है।
- शक विजय से गुजरात एवं काठियावाड़ तक का क्षेत्र गुप्त राज्य में मिल गया, जिससे भड़ौच बन्दरगाह पर भी गुप्तों का नियंत्रण हो गया, जिससे अरब सागर एवं भूमध्य सागर के व्यापार पर गुप्तों को प्रवेश मिला।
- शकों से छीनकर उज्जैन को साम्राज्य की दूसरी राजधानी बनायी। उज्जैन कला, साहित्य एवं विद्या का केन्द्र था।
वैवाहिक संबंध:–
पूना ताम्रपत्र के अनुसार चन्द्रगुप्त द्वितीय ने नागवंश की राजकुमारी कुबेर नागा से विवाह किया। इस विवाह से उसे प्रभावती गुप्त नामक पुत्री हुई।
उसने अपनी पुत्री प्रभावतीगुप्ता का विवाह वाकाटक नरेश रूद्रसेन द्वितीय से किया। इस वैवाहिक संबंध से गुप्त वाकाटक गठबन्धन ने पश्चिमी भारत में शकों को उखाड़ फेंका।
तालगुण्डा लेख में वर्णित है कि कुन्तल राज्य (कर्नाटक) के कदम्ब वंश के शासक काकुत्थवर्मन की पुत्री का विवाह चन्द्रगुप्त के पुत्र कुमारगुप्त प्रथम से हुआ था। भोज एवं क्षेमेन्द्र के अनुसार कालिदास को यहाँ दूत बनाकर भेजा था। कालिदास ने कुन्तलेश्वरदोत्य की रचना यहाँ की थी।
मुद्रा:–
- गुप्त शासकों में सर्वप्रथम चाँदी के सिक्के चलाने का श्रेय चन्द्रगुप्त द्वितीय को है। यद्यपि हाल ही में चन्द्रगुप्त प्रथम का भी एक चाँदी का सिक्का मिला है।
- चन्द्रगुप्त ने 8 प्रकार की मुद्रा चलाई- धनुर्धारी सिंह निहन्ता, अश्वारोही, छत्रधारी, पर्यक स्थित राजा-रानी, ध्वजधारी, चक्र विक्रम, पयक प्रकार की।
- चक्र विक्रम मुद्रा पर भगवान विष्णु को राजा को 3 गोल वस्तुएं देते हुए दिखाया गया है।
- चक्राधारी विष्णु की आकृति चन्द्रगुप्त द्वितीय के सिक्कों पर है।
प्रमुख अभिलेख:–
चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के मुख्य अभिलेख उदयगिरि गुहा लेख, गढ़वा अभिलेख, सांची अभिलेख व मथुरा शिलालेख हैं।
प्रथम उदयगिरि गुहालेख– इसमें चन्द्रगुप्त को राजाधिराजर्षि कहा गया है।
इसका निर्माण सन्धिविग्रहिक वीरसेन ने करवाया एवं शिव शम्भु शिवलिंग स्थापित कराया।
द्वितीय उदयगिरि गुहालेख– चन्द्रगुप्त के सामन्त एवं मालवा के गवर्नर सनकानीक महाराज का लेख है।
विष्णु की चतुर्भुज प्रतिमा एवं वराह अवतार की मूर्ति है।
सांची लेख– सेनापति आम्रकार्दव का है, जो बौद्ध था. इसने सांची बौद्ध विहार को दान दिया। इसमें पंच मण्डली का उल्लेख है।
मथुरा लेख– चन्द्रगुप्त के शासन के 5वें वर्ष का प्रथम लेख है।
चन्द्रगुप्त द्वितीय के मथुरा लेख में पाशुपत शैव उदिताचार्य का उल्लेख है, जिसने कपिलेश्वर एवं उममितेश्वर शिवलिंग स्थापित करवाए।
चन्द्रगुप्त द्वितीय के मथुरा लेख में सर्वप्रथम गुप्त सवत का उपयोग हुआ है।
यह चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासन का प्रथम लेख (गुप्त संवत 61 380 ई.) है।
मेहरौली लौह स्तम्भ लेख- संस्कृत भाषा में है, यह मरणोत्तर अभिलेख है।
सिन्धु नदी को पार कर वाहलीकों को पराजित करने, विष्णुपद पर्वत पर विष्णुध्वज की स्थापना का इसमें उल्लेख है।
इसमें चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य की उपलब्धियों की जानकारी मिलती है।
करमदण्डा अभिलेख– इसमें चन्द्रगुप्त द्वितीय के मंत्री शिखर स्वामी का नाम मिलता है, जो शैव मत का अनुयायी था।
नवरत्न–
चन्द्रगुप्त द्वितीय के दरबार में नौ विद्वानों की एक मण्डली निवास करती थी, जिसे नवरत्न कहा जाता था।
नवरत्न– कालीदास, वेतालभट (जादूगर), घटकर्पर (कूटनीतिज्ञ), शंकु (वास्तुकार), क्षपणक (फलित ज्योतिष), वररूचि (व्याकरण), अमरसिंह (कोशकार), धन्वन्तरि (चिकित्सक) एवं फलित ज्योतिष का प्रणेता वराहमिहिर था।
फाह्यान:-
चीनी यात्री फाह्यान (399-414 ई.) चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के शासन काल में भारत आया।
हालांकि फाह्यान अपने यात्रा उल्लेख में कहीं भी सम्राट के नाम का उल्लेख नहीं करता है।
कुमारगुप्त महेन्द्रादित्य (415-455 ई.)
- चन्द्रगुप्त एवं ध्रुवदेवी की संतान कुमारगुप्त प्रथम था, जिसने सर्वाधिक समय तक शासन (40 वर्ष) किया।
- कुमारगुप्त प्रथम ने महेन्द्रादित्य, श्रीमहेन्द्र, अश्वमहेन्द आदि उपाधियाँ धारण की।
- गढ़वा लेख (इलाहाबाद) में कुमारगुप्त-1 को परमभागवत कहा गया हैं।
- कुमारगुप्त प्रथम ने अनन्त देवी से विवाह किया।
- कुमारगुप्त प्रथम के शासन की प्रथम तिथि (415 ई.) उसके बिलसड अभिलेख (एटा जिला, उत्तरप्रदेश) से ज्ञात होती है तथा बिलसड अभिलेख से ही कुमारगुप्त प्रथम तक गुप्तों की वंशावली ज्ञात होती है।
- गुप्त शासकों में सर्वाधिक 18 अभिलेख एवं सर्वाधिक 14 प्रकार के सिक्के कुमारगुप्त प्रथम के मिले हैं।
मन्दसौर प्रशस्ति:–
वत्सभट्टि द्वारा लिखित मन्दसौर प्रशस्ति से (473 ई.) कुमारगुप्त प्रथम के शासन की जानकारी मिलती है। यद्यपि यह अभिलेख कुमारगुप्त द्वितीय के समय का है।
एक अन्य मदसौर प्रशस्ति/दशपुर प्रशस्ति मालव नरेश यशोवर्मन को भी है, जिसका लेखक वासुल था।
मन्दसौर प्रशस्ति के अनुसार मन्दसौर (मालवा ) का राज्यपाल बन्धुवर्मा था।
इसमें बधुवर्मा द्वारा सूर्य मन्दिर के निर्माण का भी उल्लेख है।
मन्दसौर का अन्य नाम दशपुर भी था।
- मन्दसौर अभिलेख में सुमेरू पर्वत एवं कैलाश पर्वत का उल्लेख है।
- कुमारगुप्त प्रथम के मंदसौर लेख में गुप्त संवत की जगह विक्रम संवत में तिथि है।
भितरी अभिलेख:–
भितरी अभिलेख के अनुसार स्कन्दगुप्त ने हूणों को पराजित करके क्रमादित्य व विक्रमादित्य की उपाधियां धारण की।
स्कन्दगुप्त के भितरी अभिलेख से पता चलता है कि कुमारगुप्त प्रथम के अन्तिम दिनों में पुष्यमित्रों का आक्रमण हुआ। उसके पुत्र स्कन्दगुप्त ने पुष्यमित्रों को पराजित किया।
करमदण्डा लेख (फैजाबाद) के अनुसार इसके सन्धिविग्रह पृथ्वीसेन ने शिव प्रतिमा स्थापित कराके पृथ्वीश्वर शिवलिंग स्थापित करवाया।
मथुरा लेख में जैन मुनि दलिताचार्य का उल्लेख है।
मानकुंवर लेख (इलाहाबाद) में बुद्धमित्र द्वारा बुद्ध प्रतिमा स्थापित करवाये जाने का उल्लेख है।
उदयगिरि लेख (मध्यप्रदेश) में शंकर नामक व्यक्ति द्वारा पार्श्वनाथ की मूर्ति स्थापित किए जाने का उल्लेख है।
सांची लेख में हरिस्वामिनी द्वारा सांची संघ को दान दिये जाने का उल्लेख है।
दामोदरपुर ताम्र पत्र लेख में भूमि क्रय विक्रय संबंधी विवरण दिया गया है। यहाँ से 6 ताम्रपत्र मिले हैं, जिसमें से तीसरे ताम्रपत्र में कुमार गुप्त की शासन व्यवस्था एवं कुछ ग्राम अधिकारियों (ग्रामिक, महतर, कुटुम्बिन, अष्टकुलाधिकारी) का उल्लेख है।
दामोदरपुर/पुण्डुवर्धन (बांग्लादेश के दीनाजपुर जिले में) का राज्यपाल चिरादत था।
घटोत्कच गुप्त एरण (पूर्वी मालवा) का राज्यपाल था।
इसके अतिरिक्त बांग्ला देश के धनदैह एवं वैग्राम नामक स्थानों से कुमारगुप्त प्रथम के ताम्र पत्र मिलते हैं।
तुमैन अभिलेख (स्वालियर म.प्र.) जो 435 ई. का है, इसमें कुमार गुप्त प्रथम को शरद्कालीन सूर्य की भांति बताया गया है।
कुमार गुप्त प्रथम पहला गुप्त शासक है, जिसके अभिलेख बंगाल से मिले हैं। ये हैं-
- दामादरपुर ताम्रपत्र
- ग्राम ताम्रपत्र,
- धनदेह ताम्रपत्र।
कुमारगुप्त प्रथम के सिक्के:–
1.मध्य भारत(गंगाघाटी) में चांदी के सिक्कों का प्रचलन कुमारगुप्त प्रथम ने किया। पश्चिमी भारत में चन्द्रगुप्त द्वितीय को यह श्रेय जाता है।
- कुमारगुप्त प्रथम के सिक्कों पर गरूड़ के स्थान पर मयूर (कार्तिकेय) की आकृति उत्कीर्ण है और अप्रतिघ सिक्के चलाए।
- कुमारगुप्त प्रथम ने अप्रतिघ प्रकार, गजारूढ़ प्रकार, खड़ग निहन्ता प्रकार और खड़ग प्रकार की मुद्राएं चलवाई।
- खड़ग निहन्ता प्रकार में कुमारगुप्त को गैंडा मारते हुए दिखाया है।
- कुमारगुप्त प्रथम के स्वर्ण सिक्कों से पता चलता है कि उसने अश्वमेध यज्ञ किया।
- बयाना से कुमारगुप्त प्रथम की 623 मुद्राएं प्राप्त हुई है।
नालन्दा विश्वविद्यालय:–
- कुमारगुप्त प्रथम के शासनकाल में नालन्दा विश्वविद्यालय की स्थापना हुई।
- इसे महायान बौद्ध धर्म का ऑक्सफोर्ड भी कहा जाता है।
- ह्वेनसांग के विवरण के अनुसार इसका संस्थापक शक्रादित्य था जो कि कुमारगुप्त प्रथम की उपाधि थी।
स्कन्दगुप्त (455-467 ई.)
- यह गुप्त वंश का अन्तिम महान शासक था।
- इसने क्रमादित्य, विक्रमादित्य, शक्रोपम, परमभागवत आदि उपाधियाँ धारण की थी। स्कन्दगुप्त वैष्णव था।
- स्कन्दगुप्त ने अयोध्या को अपनी राजधानी बनाया।
- स्कन्दगुप्त ने 466 ई. में चीन के सांग सम्राट के दरबार में राजदूत भेजा था।
जूनागढ लेख:–
जूनागढ़ लेख में वर्णित है कि सभी राजकुमारों का परित्याग कर लक्ष्मी ने स्वयं स्कन्दगुप्त का वरण किया। जूनागढ़ अभिलेख के अनुसार स्कन्दगुप्त के शासक बनते ही हूणों का आक्रमण हुआ।
उसने हूणों को पराजित किया। हूण आक्रमणकारी खुशनेवाज था। इसमें हूणों को मलेच्छ कहा गया है।
जूनागढ़ लेख में समय गणना (काल गणना) सम्बन्धी साक्ष्य व सुदर्शन झील (गिरनार) का स्कन्दगुप्त द्वारा पुनर्निर्माण का उल्लेख है।
सुदर्शन झील का पुनर्निर्माण सौराष्ट्र के गवर्नर पर्णदत्त के पुत्र चक्रपालित की देखरेख में हुआ।
उसने झील के किनारे एक विष्णु मन्दिर का निर्माण भी करवाया।
इस झील का निर्माण मूलतः चन्द्रगुप्त मौर्य के गवर्नर पुष्यगुप्त वैश्य ने किया था, बाद में अशोक के गवर्नर यवनराज तुषास्प तथा रुद्रदामन के गवर्नर सुविशाख ने इसकी मरम्मत करवायी।
भितरी अभिलेख:–
भितरी अभिलेख गाजीपुर जिले की सैदपुर तहसील में है। इसमें पुष्यमित्रों और हूणों के साथ स्कन्दगुप्त के युद्ध का स्पष्ट वर्णन है। इसके अनुसार है। कुमारगुप्त प्रथम के शासन के अन्तिम वर्षों में पुष्यमित्रों का आक्रमण हुआ। परन्तु कुमारगुप्त प्रथम के पुत्र स्कन्दगुप्त से पुष्यमित्र पराजित हुए। भितरी अभिलेख के आठवें श्लोक में हूणों के साथ भयंकर युद्ध व हूणों की स्कन्दगुप्त से पराजय का उल्लेख है।
भीतरी अभिलेख “हूणों के विरूद्ध युद्ध क्षेत्र में उतरने पर उसकी (स्कन्दगुप्त) भुजाओं के प्रताप से पृथ्वी कांप उठी।”
भीतरी अभिलेख में युद्ध के पश्चात् श्रोत्रेषु गंगा ध्वनि शब्द से गंगा घाटी में युद्ध का आभास होता है। भीतरी लेख में समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त द्वितीय एवं कुमारगुप्त प्रथम की माताओं के नाम है। यह स्कन्दगुप्त की काव्यमयी प्रशस्ति है।
कहौम स्तम्भ लेख:–
- स्कन्दगुप्त को कहौम स्तम्भ लेख में शक्रोपम तथा जूनागढ़ अभिलेख में श्रीपरिक्षिप्तवक्षा कहा गया है।
- कहौम अभिलेख में वर्णित है, कि भद्र नामक व्यक्ति ने 5 जैन तीर्थंकरों की प्रतिमा बनवाई।
- इन्दौर ताम्रपत्र में तैली श्रेणी द्वारा सूर्य पूजा एवं सूर्य मन्दिर को दान का उल्लेख है।
- गढ़वा अभिलेख स्कन्दगुप्त का अन्तिम लेख है।
सिक्के:–
स्कन्दगुप्त के काल में स्वर्ण सिक्कों का वजन बढ़कर 144 से 146 ग्रेन तक हो गया, जो गुप्तकाल में सबसे भारी सिक्के थे।
इससे पूर्व गुप्त सम्राटों के समय यह 118 से 123 ग्रेन होता था। स्कन्दगुप्त के समय के सिक्कों में मिलावट भी सबसे ज्यादा थी। स्कन्दगुप्त पश्चिमी भारत में चाँदी के सिक्कों को जारी रखने वाला गुप्त वंश का अन्तिम शासक था। स्कन्दगुप्त ने नन्दी (बैल) प्रकार की मुद्राएं चलाई।
स्कन्दगुप्त के उत्तराधिकारी:–
स्कन्दगुप्त की मृत्यु के पश्चात गुप्त साम्राज्य का पतन प्रारम्भ हो गया।
इस के उत्तराधिकारी निम्नलिखित थे-
पुरुगुप्त (467-473 ई.), कुमारगुप्त द्वितीय (473476 ई.), बुद्धगुप्त (476-494 ई.), नरसिंह गुप्त ‘बालादित्य’ (495-510 ई.), भानुगुप्त।
बौद्ध धर्म अपनाने वाला प्रथम गुप्त शासक पुरुगुप्त था, जो सर्वाधिक आयु में (वृद्धावस्था) शासक बना।
बुद्धगुप्त के दामोदरपुर से तीन ताम्रपत्र मिले है। पहाड़पुर इसी का है। बुद्धगुप्त भी बौद्ध मतानुयायी था।
नरसिंहगुप्त बालाद्वित्य ने परमभागवत की उपाधि धारण की, लेकिन वह बौद्ध मातानुयायी था।
ह्वेनसांग के अनुसार नरसिंहगुप्त ने हूण नरेश मिहिरकुल को पराजित कर बन्दी बना लिया, परन्तु बालादित्य ने अपनी माता के कहने पर उसे मुक्त कर दिया।
नरसिंहगुप्त बालादित्य के समय गुप्त साम्राज्य तीन भागों में बट गया।
मगध क्षेत्र में नरसिंह गुप्त शासक था।
मालवा में भानुगुप्त तथा बंगाल में वैन्यगुप्त ने स्वतन्त्र शासन स्थापित किया।
नरसिंहगुप्त के बाद उसका पुत्र कुमारगुप्त तृतीय शासक बना।
कुमारगुप्त तृतीय गुप्त वंश का अन्तिम महान शासक था, जबकि विष्णुगुप्त (550 ई.) अन्तिम गुप्त शासक था।
इसने चन्द्रादित्य की उपाधि धारण की।
एरण अभिलेख (510 ई.)– यह सती प्रथा का प्रथम अभिलेखीय उल्लेख है। भानुगुप्त के मित्र गोपराज की मृत्यु हुई एवं उसकी पत्नी सती हो गई। राय चौधरी ने इस युद्ध को स्वतंत्रता संग्राम की संज्ञा दी है।
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FAQ About गुप्त साम्राज्य
Q 1 गुप्त साम्राज्य के पतन के क्या कारण थे?
Ans – गुप्त साम्राज्य के पतन का तात्कालिक कारण यह था कि स्कन्दगुप्त के बाद शासन करने वाले राजाओं में योग्यता एवं कुशलता का अभाव था
Q 2 गुप्त साम्राज्य का संस्थापक कौन था
Ans – श्रीगुप्त
Q 3 श्री गुप्त ने गुप्त साम्राज्य की स्थापना कब की?
Ans – गुप्त साम्राज्य की नींव रखने वाला शासक श्री गुप्त था। श्री गुप्त ने ही 275 ई. में गुप्त वंश की स्थापना की
Q 4 गुप्त साम्राज्य में कितने राजा हुए?
Ans – गुप्त साम्राज्य के सम्राटों में क्रमश : श्रीगुप्त, घटोत्कच, चंद्रगुप्त प्रथम, समुद्रगुप्त, रामगुप्त, चंद्रगुप्त द्वितीय, कुमारगुप्त प्रथम (महेंद्रादित्य) और स्कंदगुप्त हुए