गुप्तोत्तर काल (Post Gupta Age) – भारत के समान्य ज्ञान की इस पोस्ट में हम गुप्तोत्तर काल – Post Gupta Age के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी और नोट्स प्राप्त करेंगे ये पोस्ट आगामी Exam REET, RAS, NET, RPSC, SSC, india gk के दृस्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण है
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गुप्तोत्तर काल – Post Gupta Age
गुप्त साम्राज्य का पतन 5वीं शताब्दी के आसपास शुरू हुआ। गुप्त साम्राज्य के पतन के साथ, मगध और उसकी राजधानी पाटलिपुत्र ने भी अपना महत्व खो दिया। यही कारण है कि गुप्तोत्तर काल पूरी तरह से संघर्षों से भरा है। गुप्तों के पतन के परिणामस्वरूप उत्तर भारत में 5 शक्तिशाली राज्यों का उदय हुआ, ये राज्य इस प्रकार हैं।
हूणों का आक्रमण
हूण मध्य एशिया की खानाबदोश जाति थी। हूणों ने यूची जाति को परास्त कर अपना मूल निवास स्थान छोड़ने को विवश किया। हूणों की दो शाखाएं थी- पश्चिमी एवं पूर्वी
पश्चिमी शाखा ने रोमन साम्राज्य पर आक्रमण कर रोमन साम्राज्य की नींव हिला दी। पूर्वी शाखा ने पांचवीं शताब्दी ई. में भारत पर आक्रमण किया।
हूणों का पहला आक्रमण 455 ई. में हुआ। स्कन्दगुप्त ने इन्हें पीछे धकेल दिया।
हूण आक्रमण ने गुप्त अर्थव्यवस्था को आर्थिक संकट में डाल दिया, जिससे गुप्तों को अपने सिक्कों में मिलावट करनी पड़ी।
तोरमाण
500 ई. के आस-पास हूणों का नेता तोरमाण मालवा का स्वतंत्र शासक बन गया।
धन्य विष्णु के एरण (मालवा) के वराह प्रतिमा अभिलेख में भी तोरमाण का जिक्र आता है।
एरण का वराह प्रतिमा अभिलेख तोरमाण के प्रथम वर्ष का अभिलेख है। इससे ज्ञात होता है कि एरण के धन्य विष्णु ने गुप्तों के स्थान पर
तोरमाण की अधीनता स्वीकार कर ली थी।
तोरमाण के छोटे तांबे के सिक्के पंजाब व उत्तरप्रदेश से प्राप्त होते हैं। हूणों ने केवल ताँबे व चाँदी के सिक्के चलाए।
कुरा अभिलेख
कुरा अभिलेख में भी तोरमाण का जिक्र मिलता है। कुरा अभिलेख व तोरमाण की रजत मुद्राओं पर षाहि-जउब्ल की उपाधि मिली है।
जउब्ल तुर्की भाषा का शब्द है जिसका अर्थ ‘सामन्त’ होता है। षाहि उपाधि कुषाणों की थी।
जैन ग्रन्थ कुवलयमाला
जैन ग्रन्थ कुवलयमाला के अनुसार तोरमाण की राजधानी चन्द्रभागा (चिनाब) नदी के किनारे पवैया थी एवं हरिगुप्त ने तोरमाण को जैन धर्म में दीक्षित किया था।तोरमाण के सेनापति कराल ने साकल (स्यालकोट) को अपनी राजधानी बनाया।
तोरमाण के पुत्र मिहिरकुल को औलिकर वंशीय मालवनरेश यशोधर्मा एवं मगध के गुप्त शासक नरसिंहगुप्त बालादित्य ने परास्त किया।
ह्वेनसांग के अनुसार मिहिरकुल को बन्दी बना लिया गया, किन्तु बालादित्य की माँ के कहने पर उसे छोड़ दिया गया।
मिहिरकुल
मिहिरकुल शैव मतावलम्बी था। उसके सिक्कों पर नन्दी का चित्र तथा जयतु वृषभ अंकित मिलता है। मन्दसौर प्रशस्ति से भी उसके शैव होने की पुष्टि होती है। ऐसा माना जाता है कि हूणों ने ही ‘हर-हर महादेव’ का नारा दिया था।
मंदसौर प्रशस्ति के अनुसार मिहिरकुल ने यशोधर्मन से पूर्व शिव के अतिरिक्त किसी के समक्ष शीश नहीं झुकाया।
मालवा नरेश यशोधर्मा की मन्दसौर प्रशस्ति की रचना वासुल ने की। इसमें यशोधर्मन् (यशोधर्मा) द्वारा हूण शासक मिहिरकुल को परास्त करने का वर्णन है। मन्दसौर प्रशस्ति में यशोधर्मा को जनेन्द्र कहा गया है।
मिहिरकुल बौद्ध धर्म का कट्टर शत्रु था।
मिहिरकुल का ग्वालियर अभिलेख है। इसमें विदित है कि उसने सूर्य मन्दिर बनवाया था।
ह्वेनसांग ने मिहिरकुल को पंचभारत का स्वामी कहा है एवं राजधानी साकल बताई है।
जैन लेखक ने मिहिरकल को ‘दुष्टों में प्रथम’ कहा है।
कल्हण ने मिहिरकुल को विनाश का देवता कहा है तथा वह इसे कश्मीर का शासक बताता है। कल्हण के अनुसार इसने कश्मीर में शैव मन्दिर बनवाया।
हूणों ने संस्कृत को राजभाषा बनायी।
उन्होंने मध्य एशियाई व्यापार को क्षति पहुंचाई, जिससे भारतीय व्यापारी दक्षिणी पूर्वी एशिया के व्यापार की ओर उन्मुख हुए।
गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद विकेन्द्रीकरण और क्षेत्रीयता की भावना का विकास हुआ। भूमि अनुदान की प्रथा में तेजी आई, जिससे सामन्तवाद का विकास हुआ। केन्द्रीय सत्ता कमजोर हुई तथा क्षेत्रीय राजवंशों का उदय हुआ।
गुप्त वंश के पतन के बाद निम्नलिखित क्षेत्रीय राजवंशों का उदय हुआ।
वल्लभी के मैत्रक, कन्नौज के मौखरि, मालवा व मगध के परवर्ती गुप्त/उत्तर गुप्त वंश, बंगाल के गौड़, थानेश्वर के पुष्यभूति / वर्धन वंश, हर्षवर्धन (606-647 ई.)
वल्लभी के मैत्रक-
गुजरात में वल्लभी के मैत्रक वंश ने गुप्तोत्तर काल के राजवंशों में सबसे लम्बे समय के लिए शासन किया। वल्लभी संवत् तथा गुप्त संवत् दोनों ही 319 ई. में शुरू हुये। वल्लभी शासक गुप्त संवत् का प्रयोग करते थे। भट्टार्क व धर्मसेन इनके प्रमुख शासक थे।
- मैत्रक वंश के ध्रुवसेन द्वितीय के शासन काल में ह्वेनसांग आया था, वह इसे हर्ष का दामाद बताता है।
- ध्रुवसेन ने हर्ष की प्रयाग एवं कन्नौज सभाओं में भाग लिया था।
- इस वंश के शासक धरसेन चतुर्थ के दरबार में महाकवि भट्टि रहता था।
कन्नौज के मौखरि:-
मौखरि शब्द का वर्णन सर्वप्रथम पाणिनी की अष्टाध्यायी में मिलता है। असीरगढ़ मुद्रालेख, जौनपुर मस्जिद लेख एवं बड़वा यूप अभिलेख (कोटा) से भी मौखरि वंश की जानकारी मिलती है।
इस वंश की स्थापना हरिवर्मा ने की। हरिवर्मा के बाद क्रमशः आदित्य वर्मा, ईश्वर वर्मा एवं ईशानवर्मा शासक हुए 554 ई. के आस-पास इस वंश का ईशानवर्मा शक्तिशाली शासक हुआ। मौखरि मूलतः गया (बिहार) के निवासी थे। ईशानवर्मा के बाद सर्ववर्मा, अवन्तिवर्मा व ग्रहवर्मा शासक हुए।
ग्रहवर्मा द्वितीय इस वंश का अंतिम शासक था। उसने थानेश्वर के प्रभाकरवर्धन की पुत्री राज्यश्री से विवाह किया ग्रहवर्मा को मालवा के राजा देवगुप्त ने मार डाला।
हरहा अभिलेख (समय 553554 ई. बाराबंकी, उत्तरप्रदेश) से मौखरि वंश की जानकारी मिलती है। हरहा अभिलेख की खोज 1915 में एच. एन. शास्त्री ने की हरहा अभिलेख इशान वर्मा के पुत्र सूर्यवर्मा (मिहिरवर्मा) ने उत्कीर्ण करवाया।
मालवा व मगध के परवर्ती गुप्त/उत्तर गुप्त वंश :-
कुमारगुप्त उत्तरगुप्त वंश का पहला शासक था जिसने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की।
परवर्ती गुप्तों की जानकारी के स्रोत :-
अफसढ़ का लेख, देवबर्नाक (शाहबाद-आरा, बिहार) का लेख
अफसढ़ का लेख:-
यह लेख आदित्य सेन का है। यह बिहार के गया जिले के अफसढ़ नामक स्थान से मिला है, जिसमें उत्तर गुप्त वंश के आदित्य सेन तक के आठ शासकों का इतिहास वर्णित है। इसमें उत्तर गुप्त एवं मौखरि शासकों के पारस्परिक संबंधों का भी वर्णन मिलता है।
देवबर्नाक (शाहबाद-आरा, बिहार) का लेख:-
यह लेख जीवितगुप्त द्वितीय का है। इस लेख से भी उत्तर गुप्त वंश के तीन शासकों की जानकारी मिलती है। उत्तर गुप्त वंश का संस्थापक कृष्णगुप्त (लगभग 510-525 ई.) था।
इस वंश का शासन केन्द्र मगध एवं मालवा था।
तीसरे शासक जीवितगुप्त प्रथम को क्षितिचूड़ामणि (राजाओं का सिरमौर) कहा गया है।
कुमारगुप्त उत्तरगुप्त वंश का प्रथम शासक था, जिसने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की, इसका मौखरि ईशानवर्मा से संघर्ष हुआ था।
अफसढ लेख के अनुसार– “कुमारगुप्त ने उपले की आग में अपना जीवन प्रयाग में समाप्त किया। 5.महासेन गुप्त प्रमुख परवर्ती गुप्त शासक था। हर्षवर्धन की दादी महासेन गुप्त की बहिन थी।
महासेन गुप्त को कलचुरि नरेश शंकरगण ने मार डाला। महासेन गुप्त का बड़ा पुत्र देवगुप्त था, जिसने हर्षवर्धन के बहनोई ग्रहवर्मा द्वितीय की हत्या कर दी थी। महासेन गुप्त ने बड़े पुत्र देवगुप्त को उत्तराधिकारी नियुक्त किया।
महासेन गुप्त के दो पुत्र कुमारगुप्त तथा माधवगुप्त वर्धन में रहते थे।
हर्षवर्धन का बचपन इन दोनों राजकुमारों व ममेरे भाई भण्डी के साथ बीता था।
आगे चलकर हर्ष ने माधवगुप्त को मगध का शासक बनाया।
माधवगुप्त का मृत्यु के बाद आदित्यसेन मगध का शासक बना, इस तीन अश्वमेध यज्ञ किए (मन्दर लेख के अनुसार) ।
चीनी यात्री वांग हुएन से ने अपनी तीन बार की यात्रा में से दो बार को यात्रा आदित्यसेन के शासनकाल में की और कोरिया का बौद्ध यात्री हुईलुन भी आया था।
जीवितगुप्त द्वितीय इस वंश का अन्तिम शासक था।
बंगाल के गौड़-
शशांक प्रमुख गौड़ शासक था। हर्षवर्धन से उसकी शत्रुता थी।
शशांक बौद्ध धर्म का विरोधी था।
इसने गया में बोधिवृक्ष को कटवाकर गंगा नदी में फिंकवा दिया।
ह्वेनसांग शशांक को काचेचांग कहता है तथा उसे कर्ण सुवर्ण का शासक बताता है।
बाणभट्ट इसे गौड़ का राजा बताता है। कर्ण सुवर्ण शशांक की राजधानी थी।
शंशाक द्वारा नष्ट किये गए बोधिवृक्ष एवं बौद्ध स्मारकों का पुनरूद्धार पूर्णवर्मा ने कराया था।
वर्तमान बोधिवृक्ष अपने वंश की चौथी पीढ़ी का है।
पुष्यभूति/वर्धन वंश
- इस वंश की स्थापना पुष्यभूति ने थानेश्वर में की। (थानेश्वर, हरियाणा)
- ये संभवतः गुप्तों के सामन्त थे जिन्होंने मौका पाकर स्वतंत्र राज्य स्थापित किया।
- इस वंश की प्रारंभिक राजधानी थानेश्वर थी।
- पुष्यभूति वंश के प्रभावशाली शासक
प्रभाकरवर्धन
वर्धन वंश की शक्ति व प्रतिष्ठा का संस्थापक प्रभाकरवर्धन था।
प्रभाकर वर्धन ने परमभट्टारक एवं महाराजाधिराज की उपाधि धारण की ।
यह इस बात का द्योतक है कि यह एक स्वतंत्र एवं शक्तिशाली शासक था।
बाणभट्ट ने हर्षचरित्र में प्रभाकर वर्धन के लिए अनेक अलंकरणों का प्रयोग किया है। हूणहरिकेसरी, सिंधुराजज्वर, गुर्जरप्रजागर, सुगंधिराज आदि अलंकरण बाणभट्ट द्वारा दिए गए है।
अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के लिए प्रभाकरवर्धन ने अपनी पुत्री राज्यश्री का विवाह कन्नौज के मौखिरी शासक ग्रहवर्मन के साथ किया।
राज्यवर्धन
प्रभाकरवर्धन के जीवन के अंतिम दिनों में हूणों का आक्रमण हुआ परन्तु प्रभाकरवर्धन युद्ध में जाने के लिए असमर्थ था अतः उसका पुत्र राज्यवर्धन युद्ध के लिए गया किन्तु युद्ध के मध्य में ही प्रभाकरवर्धन का स्वास्थ्य ज्यादा बिगड़ गया।
राज्यवर्धन युद्ध से वापस लौटा तो उनके पिता प्रभाकरवर्धन की मृत्यु हो चुकी थी।
इसी समय मालवा शासक देवगुप्त एवं बंगाल शासक-शशांक ने मिलकर कन्नौज के मौखिरी शासक गृहवर्मन (राज्यवर्धन के बहनोई) की हत्या कर दी राज्यश्री बना लिया।
राज्यश्री(बहिन) को बंदी बनाए जाने तथा गृहवर्मन की हत्या की सूचना पाकर राज्यवर्धन देवगुप्त एवं शशांक से बदला लेने के लिए निकला इसी क्रम में राज्यवर्धन ने देवगुप्त को पराजित किया।
शशांक ने राज्यवर्धन से मित्रता का हाथ बढ़ाते हुए अपने शिविर में बुलाया और धोखे से राज्यवर्धन की हत्या कर दी।
राज्यवर्धन की हत्या की सूचना पाकर हर्षवर्धन ने थानेश्वर राज्य की बागडोर संभाली।
हर्षवर्धन
- अन्य नाम – शिला दित्य
- उपाधि – माहेश्वर, सार्वभौम व महाराजाधिराज
हर्षवर्धन के गद्दी संभालते ही उसक सामने अपनी बहिन राज्यश्री को बचाने की सबसे बड़ी चुनौती थी इसी क्रम में अपनी बहिन को देवगुप्त की कैद से छुड़ाने एवं अपने भाई तथा बहनोई की हत्या का बदला लेने हर्षवर्धन कन्नौज की तरफ बढ़ा परन्तु सूचना मिली की राज्यश्री देवगुप्त की कैद से भागकर विंध्य की पहाड़ीयों में चली गयी है। तो अब वह विंध्य की तरफ बढ़ने लगा।
बौद्ध भिक्षु दिवाकर मित्र की सहायता से हर्ष ने राज्यश्री को खोज निकाला एवं सती होने से बचाया।
गृहवर्मन का कोई उत्तराधिकारी नहीं था अतः राज्यश्री की
सहमति से हर्ष को कन्नौज का शासक बना दिया गया।
हर्षवर्धन ने अपनी राजधानी कन्नौज में स्थापित कर ली ।
मगध के शासक पूर्णवर्मन ने हर्ष की अधीनता स्वीकार कर ली तथा हर्ष ने पूर्णवर्मन को मगध का शासक बना रहने दिया।
ह्वेनसांग के अनुसार हर्ष ने भारत के 5 देशों को अपने अधीन कर लिया।
ये 5 प्रदेश संभवतः पंजाब, कन्नौज, गौड (बंगाल), मिथिला ओर उडीसा के राज्य थे। हर्ष के अधीन मालवा का राज्य भी था।
हर्ष ने वल्लभी के शासक ध्रुवसेन द्वितीय के साथ अपनी पुत्री का विवाह किया।
हर्ष ने दक्षिण में भी अभियान किया परन्तु चालुक्य शासक पलकेशिन द्वितीय को पराजित न कर सका।
वह बौद्ध धर्म की महायान शाखा का संरक्षक था।
इस प्रकार हर्ष केवल उत्तरी भारत के कुछ भागों का ही सम्राट बन सका।
मौखिरी वंश (कन्नौज)
इस वंश का संस्थापक संभवतः गुप्तों का सामन्त था।
क्योंकी इस वंश के प्रारंभिक 3 शासकों हरि वर्मा, आदित्य वर्मा इवं ईश्वर वर्मा को महाराज की उपाधि प्राप्त थी।
बाद के तीन शासकों ईशान वर्मन, सर्ववर्मन एवं अवंतिवर्मन को महाराजाधिराज की उपाधि प्राप्त हुई।
अतः ईशान वर्मन इस वंश का प्रथम स्वतंत्र एवं शक्तिशाली राजा प्रतीत होता है।
गुप्तवंश के पतन के बाद कन्नौज उत्तर भारत का शक्ति स्थल बना इसी कारण भारत का एकछत्र सम्राट बनने की होड में गुर्जर-प्रतिहार, पाल एवं राष्ट्रकूटों के मध्य एक लंबा त्रिदलीय संघर्ष चला।
मौखरी वंश के शासक – ईशानवर्मन, सर्ववर्मन, अवंतिवर्मन, ग्रहवर्मन, हर्ष(राज्यश्री के साथ), सुचंद्रवर्मन (अंतिम)।
कन्नोज के लिए त्रिदलीय संघर्ष
कारण – एकछत्र सम्राट बनने की इच्छा
गंगाघाटी एवं इसमें उपलब्ध व्यापारिक एवं कृषि संबंधित संमृद्ध संसाधनों पर नियंत्रण।
अन्य सामरिक महत्व के उद्देश्य ।
संघर्ष में शामिल प्रमुख शासक
प्रतिहार वंश – वत्सराज, नागभट्ट-2, राम भद्र, मिहिर भोज,महेन्द्रपाल।
पाल वंश – धर्मपाल, देवपाल, विग्रहपाल, नारायण पाल।
राष्ट्रकूट – ध्रुव, गोविन्द-3, अमोघवर्ष-1, कृष्ण-21
तथ्य
कन्नौज पर स्वामित्व के लिए संघर्ष का आरंभ पाल शासक धर्मपाल ने किया।
इसके बाद प्रतिहार शासक इस संघर्ष में शामिल हुए। बाद में राष्ट्रकूट इस संघर्ष में कूदे।
यह संघर्ष लगभग 200 वर्ष तक चला एवं अंतिम रूप से प्रतिहार शासक सफल हुए।