Sikh Dharm ke Guru – सिक्ख धर्म – भारत के समान्य ज्ञान की इस पोस्ट में हम Sikh Dharm ke Guru – सिक्ख धर्म के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी और नोट्स प्राप्त करेंगे ये पोस्ट आगामी Exam REET, RAS, NET, RPSC, SSC, india gk के दृस्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण है
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Sikh Dharm ke Guru – सिक्ख धर्म
मुहसिन फनी की दबिस्तान ए मजाहिब में सिक्ख समुदाय (सिक्ख धर्म) के संगठन का वर्णन है, सिक्ख शब्द शिष्य का अपभ्रंश है, गुरु नानक के शिष्यों को सिक्ख कहा गया है।
- मसन्द– गुरु का प्रतिनिधि होता जो सिक्खों की आय का दशांश वसूलते थे।
- सहलंग– मसन्द द्वारा दीक्षित व्यक्ति
- मेली– मसन्द का सहायक
- खालसा– गुरु द्वारा दीक्षित व्यक्ति
- महल– गुरु नानक की आत्मा उसके उत्तराधिकारियों में व्याप्त थी। इसी कारण प्रत्येक गुरु को महल कहा गया है।
गुरु नानक (1469-1538 ई ) :-
सिख धर्म के प्रवर्तक गुरु नानक का जन्म 15 अप्रैल, 1469 को तलवन्डी (वर्तमान ननकाना पाकिस्तान) में हुआ। उन्होंने असम से बगदाद तथा तिब्बत से श्रीलंका तक भ्रमण किया। उन्होंने हिन्दू मुस्लिम एकता पर बल दिया, अवतारवाद व कर्मकाण्ड का विरोध किया तथा निर्गुण भक्ति का समर्थन किया।
गुरु नानक सिकन्दर लोदी, बाबर एवं हुमायूँ के समकालीन थे, इन्होंने संगत की स्थापना की। गुरु नानक की पत्नी का नाम सुलाखिन था एवं दो पुत्र श्रीचन्द एवं लक्ष्मीदास थे।
गुरु नानक ने सिकन्दर लोदी के समय सिक्ख धर्म की स्थापना की।
अन्तिम दिन पंजाब में करतारपुर में बिताये मरदाना इनका प्रिय शिष्य था।
नानक ने समानता व सत्कर्मों पर अधिक बल दिया तथा धर्म प्रचार के लिए संगतों की स्थापना की स्त्रियों द्वारा परिवार व समाज में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के उपदेश दिये।
नानक ने लंगर (सामूहिक भोज) की प्रथा शुरू की।
गुरु अंगद (लेहना) (1538-1552 ई.) :-
ये गुरु नानक के शिष्य थे। गुरु के उपदेशों का सरल भाषा प्रचार किया। इन्होंने स्थानीय भाषा गुरुमुखी में गुरु के उपदेशों का संकलन किया व गुरुमुखी लिपि की शुरुआत की। लंगर व्यवस्था को स्थाई स्वरूप प्रदान किया। कन्नौज में पराजित होने के बाद हुमायूँ अंगद से पंजाब में मिला।
गुरु अमरदास (1552-1574 ई.) :-
गुरु अंगद के शिष्य, सिख धर्म को एक संठित रूप दिया व इसके लिए 22 गद्दियां स्थापित की।
उन्होंने अपने शिष्यों को पारिवारिक सन्त होने का उपदेश दिया।
गुरु अमरदास स्वयं खेती करते थे व शिष्यों को भी संसार छोड़ने (संन्यास लेने) के लिए नहीं कहा।
गुरु नानक के पुत्र बाबा श्रीचन्द ने एक पृथक उदासी संप्रदाय बना लिया था।
श्रीचन्द के विरोध के कारण गुरु अमरदास को अपना स्थान बदलना पड़ा।
सती प्रथा, पर्दा प्रथा, मादक द्रव्यों का विरोध व विवाह पद्धति तथा मृत्यु संस्कारों को सरल बनाया।
सिक्खों व हिन्दुओं के विवाह को अलग करने के लिए लवन पद्धति शुरू की।
अकबर ने पंजाब में गुरु से भेंट को व गुरु तथा उनके शिष्यों को तीर्थ यात्रा कर से मुक्त किया व उनकी पुत्री को कई गांवों की जागीर दी।
गुरु अमरदास ने अपने उत्तराधिकारी रामदास को दैवीय गुणों से युक्त बताया व सिक्खों से मांग की कि वे अपनी संपत्ति व आत्मा गुरु की इच्छा पर छोड़ दें।
अमरदास वैष्णव सम्प्रदाय के अनुयायी थे।
इन्होंने नानक, अंगद एवं स्वयं के विचारों को सम्मिलित करते गोविन्दवाल पोधियाॅं की रचना की एवं आनन्द नामक पद्य की रचना की।
अमरदास की पुत्री बीबीभानी का विवाह रामदास से हुआ था।
गुरु रामदास (1574-81 ई.) :-
1577 ई. में अकबर ने गुरु रामदास एवं इनकी पत्नी बीबीभानी को 500 बीघा जमीन दी, जिसमें एक प्राकृतिक तालाब था। यहीं पर अमृतसर नगर व स्वर्ण मंदिर बना। इन्होंने अपने तीसरे पुत्र अर्जुन को गद्दी सौंपी, जिससे गुरु पद पैतृक हो गया। गुरु रामदास ने यह विचार भी दिया कि एक गुरु की आत्मा दूसरे गुरु में स्वतः चली जाती है। अतः प्रत्येक गुरु का सम्मान समान रूप से करना चाहिए।
गुरु अर्जुनदेव (1581-1606 ई.)-
सिक्ख संप्रदाय को शक्तिशाली बनाया, जगह-जगह संगतों की स्थापना की, स्थाई रूप से धर्म प्रचारक (मसन्द व मेउरा) नियुक्त किए। सिक्खों से धन लेने का कार्य भी शुरू किया। इन्होंने अनिवार्य आध्यात्मिक कर 1/10 (दशांश) लागू किया।
गुरु पद को सिक्खों का आध्यात्मिक व सांसरिक प्रमुख बनाकर मुगल बादशाह की तरह शान शौकत से रहना शुरू किया। 1604 ई. में आदिग्रन्थ में सिक्ख गुरुओं के उपदेशों का संकलन करवाया।
आदिग्रन्थ में गुरु नानक एवं उसके चार उत्तराधिकारियों तथा फरीद, कबीर, जयदेव, रामानन्द, मीरा, नामदेव, रैदास, धन्ना, सेना की वाणी को सम्मिलित किया गया है। बाद में गुरु गोविन्द सिंह ने तेग बाहादुर की रचनाओं को भी इसमें शामिल किया तब इसे ‘गुरु ग्रन्थ साहिब’ कहा जाने लगा।
सूफी सन्त मिया मीर द्वारा अमृतसर में हर मंदिर साहब की नीवं डलवाई। बाद में रणजीत सिंह ने इस मंदिर को सोने से जड़वा दिया अतः अंग्रेजों ने इसे स्वर्ण मंदिर कहा। उन्होंने सिक्खों को शक्तिशाली बनने के लिए कहा। विद्रोही शहजादे खुसरो को आशीर्वाद देने के कारण जहाँगीर ने गुरु अर्जुनदेव को 1606 ई. में राजद्रोह के आरोप में फांसी की सजा दे दी। उन्होंने अपने पुत्र हरगोविन्द को शस्त्र धारण करने व सेना गठित करने आदेश दिया।
गुरु को मृत्युदण्ड को सिक्खों ने अपने धर्म पर मुगल आक्रमण माना।
गुरु अर्जुनदेव ने तरनतारन एवं करतारपुरा नगर की स्थापना की।
“मेरे पास अपना कोई धन नहीं है, मेरा धन तो असहाय एवं गरीबों के लिए है” -अर्जुनदेव
गुरु हरगोविन्द (1606-45 ई.)-
सिक्खों को सैनिक संप्रदाय बनाया, समर्थकों से धन के स्थान पर घोड़े व हथियार लेने प्रारम्भ किया व मांस खाने की अनुमति दी। तख्त अकाल बंगा की नींव डाली, अमृतसर की किलेबन्दी की सिक्खों को धार्मिक शिक्षा के साथ सैनिक शिक्षा दी जहाँगीर ने उन्हें दो वर्ष तक ग्वालियर के किले में बन्दी रखा। शाहजहाँ से बाज के प्रकरण के कारण संघर्ष हुआ। सुरक्षा हेतु बाद में कश्मीर की पहाड़ियों में कीरतपुर नामक स्थान पर चले गये।
- गुरु हरगोविन्द ने छोड़ दाता बन्दी की उपाधि धारण की। इन्होंने मीरी पीरी का सिद्धान्त दिया।
- सिक्खों को एक सैन्य लड़ाकू जाति में परिवर्तित किया।
गुरु हरराय (1645-1661 ई.)
इन्होंने दारा को सहयोग दिया था, अतः औरंगजेब ने दरबार में बुलाया। अपने पुत्र रामराय को दरबार में भेजा जो औरंगजेब से मिल गया, अतः गुरु ने अपनी गद्दी दूसरे पुत्र हरकिशन को सौंपी। इनके समय में ही सर्वप्रथम उत्तराधिकार विवाद हुआ।
गुरु हरिकिशन (1661-64 ई.)
इनका गद्दी के लिए अपने बड़े भाई रामराय से विवाद हुआ। चेचक के कारण गुरु हरिकिशन की मृत्यु हुई।
गुरु तेगबहादुर (1664-75 ई.)
ये छठे गुरु हरगोविन्द के पुत्र थे। गुरु हरिकिशन ने मृत्यु से पूर्व उन्हें ‘बाकला दे बाबा’ कहा। धीनमल व रायमल उनके प्रमुख विरोधी थे। इन्होंने औरंगजेब की धार्मिक नीतियों का विरोध किया। औरंगजेब ने इन्हें बंदी बनाकर इस्लाम स्वीकार करने को कहा व मना करने पर मृत्युदण्ड दे दिया। दिल्ली में जिस स्थान पर गुरु तेग बहादुर को मृत्युदण्ड दिया वहां आजकल गुरुद्वारा शीशगंज है।
गुरु तेगबहादुर सिखों द्वारा निर्वाचित एकमात्र गुरु थे।
गुरु गोविन्द सिंह (1675-1708 ई.) :-
इनका जन्म पटना (बिहार) में हुआ। ये सिक्खों के दसवें व अंतिम गुरु थे। अपनी मृत्यु से पूर्व इन्होंने गुरु की गद्दी को समाप्त कर दिया। पंजाब में मखोवल या आनन्दपुर में अपना मुख्यालय बनाया। 1699 ई. में खालसा (दी सोसायटी ऑफ दी प्योर) की स्थापना की, सिक्खों को पंचमकार (केश, कंघा, कड़ा, कच्छा और कृपाण) धारण करने का आदेश दिया। सिक्खों को कट्टर सैनिक संप्रदाय बनाने में सफलता प्राप्त की।
गोविन्द सिंह के शिष्य मनीसिंह ने सिंहन दी भगतमाला लिखी।
इन्होंने औरंगजेब के विरूद्ध 1700 ई. में आनन्दपुर का प्रथम युद्ध, 1704 ई. में आनन्दपुर का द्वितीय युद्ध एवं चक्मोर का युद्ध, 1705 ई. में खिदखना का युद्ध लड़ा।
औरंगजेब के सरहिन्द के फौजदार वजीर खां ने इनके पुत्र फतहसिंह एवं जोरावरसिंह को दीवार में जिन्दा चिनवा दिया।
औरंगजेब की मृत्यु के बाद बहादुर शाह ने गुरु से उत्तराधिकार युद्ध में सहायता मांगी।
बहादुरशाह प्रथम ने गोविन्द सिंह को 5000 का मनसब दिया।
गुरु गोविन्द सिंह ने 1688-90 ई. के बीच चार किले बनवायें-
- आनन्द गढ़.
- केशगढ़,
- लौहागढ़,
- फतेहगढ़
लौहागढ़ का किला गुरु गोविन्द सिंह ने ही मुखलिसगढ़ के किले के नाम से बनवाया था।
बन्दा बहादुर ने मुखलिसगढ़ के किले की मरम्मत करके इसका नाम लौहागढ़ रखा।
गोदावरी नदी के तट पर नान्देड़ नामक स्थान पर एक पठान जमशेद खान ने 1708 ई. में उन्हें छुरा मारकर घायल कर दिया।
कुछ समय पश्चात उन्होंने मृत्यु निश्चित जानकर आत्मदाह कर लिया।गुरुगोविन्द सिंह की याद में नांदेड़ (महाराष्ट्र) में हुजूर साहब गुरुद्वारे का निर्माण हुआ।
गुरु गोविन्दसिंह ने एक पूरक ग्रन्थ ‘दसवें बादशाह का ग्रन्थ’ का संकलन किया। विचित्र नाटक उनकी आत्मकथा है।
इन्होंने औरंगजेब को 1704 ई. में ‘जफरनामा’ नामक फारसी भाषा में पत्रों का संग्रह भेजा।
गुरु गोविन्द सिंह द्वारा रचित अन्य पुस्तकें –
- जपजी साहिब,
- चंडी चरित्र,
- उकट विलास,
- कृष्ण अवतार,
- शास्त्र नाम माला पुराण,
- चंडी दा वार,
- अकाल उस्तात,
- रामअवतार,
- पखयान चरित्र
गुरु गोविन्द सिंह ने चरणपाहुल के स्थान पर खाडे का पाहुल प्रथा आरम्भ की।
पाहुल प्रथा में सिक्ख जाति बन्धन को कमजोर करने के लिए एक कटोरे में अमृतपान करते थे।
पंच प्यारे:-
गुरु गोविन्द सिंह के पांच प्रिय शिष्य दया सिंह, धर्मसिंह,मोखमसिंह, साहिबसिंह व हिम्मत सिंह थे। गुरु ने इनके नाम के आगे सिंह लगाया व अपने अनुयायियों को भी नाम के अन्त में सिह लगाने को कहा।
गुरु गोविन्दसिंह को ‘सच्चा पादशाह’, उच्छ का पीर एवं सर्वासदानी भी कहा गया है।
इन्होंने मृत्यु से पूर्व गुरु की गद्दी को समाप्त कर आदिग्रन्थ की शिक्षाओं को ही गुरु मानने का आदेश दिया।
दूसरा कार्य गुरबक्श सिंह नामक बैरागी, जो बन्दा बहादुर के नाम से प्रसिद्ध थे, को अपने अनुयायियों के साथ राजनैतिक नेतृत्व प्रदान करने के लिए पंजाब भेजना था।
बदा बहादुर ने सिक्खों के धार्मिक उत्पीड़न के विरोध में विद्राह किया।
बन्दा बहादुर
बन्दा बहादुर की सबसे महत्त्वपूर्ण विजय 1710 ई. में सरहिन्द की विजय थी। बन्दा ने इस युद्ध में सरहिन्द के मुगल गवर्नर वजीर खाँ को मार डाला। बन्दा बहादुर पहले सिक्ख राजनैतिक नेता थे, जिन्होंने प्रथम स्वतंत्र सिक्ख राज्य की स्थापना की। इसकी राजधानी सरहिन्द थी।
इन्होंने 1710 ई. में गुरुगोविन्द सिंह व गुरुनानक के नाम के सिक्के जारी किये।
बन्दा बहादुर को सच्चा पादशाह कहा जाता है।
इन्होंने पंजाब में जमींदारी प्रथा को समाप्त किया।
बन्दा बहादुर को 1715 ई. में फर्रूखसियर ने गुरदासपुर के किले में घेर लिया व दिल्ली लाकर हाथी के पैर के नीचे कुचलवा दिया।
गुरु गोविन्द सिंह ने पीर बुन्दुशाह व काले खां के नेतृत्व में 500 पठानों को भी अपनी सेना में नियुक्त किया।
हरिश्चन्द्र वर्मा के अनुसार बन्दा बहादुर का बचपन का नाम लक्ष्मण देव था तथा जब वे बैरागी बने उन्होंने माधोदास का नाम धारण किया। लक्ष्मणदेव का जन्म 1670 ई. में पूंछ जिले के राजौरी नामक स्थान पर हुआ तथा नांदेड़ (महाराष्ट्र) में उनकी गुरु गोविन्द सिंह से मुलाकात हुई। गुरुजी ने उन्हें बन्दाबहादुर का नाम दिया।
वर्मा के अनुसार बन्दा बहादुर द्वारा स्थापित स्वतंत्र सिक्ख राज्य की राजधानी हिमालय की श्रेणियों में स्थित मुखलिसगढ़ का किला था जिसका नाम बाद में लौहगढ़ रखा गया।
सिक्ख धर्म FAQ
Q 1 सिक्ख धर्म का अर्थ क्या है?
Ans – जाबी भाषा में ‘सिख’ शब्द का अर्थ ‘शिष्य’ होता है। सिख ईश्वर के वे शिष्य हैं जो दस सिख गुरुओं के लेखन और शिक्षाओं का पालन करते हैं
Q 2 चौथे सिख गुरु कौन थे?
Ans – गुरु रामदास
Q 3 सिख धर्म के 10 गुरु कौन कौन थे?
Ans – सिक्ख धर्म के गुरु
- गुरु नानक देव जी (1469-1539)
- अंगद देव जी (1539-1552)
- अमर दास जी (1552-1574)
- रामदास जी (1574-1581)
- अर्जुन देव (1581-1606)
- हरगोविंद सिंह (1606-1645)
- हरराय (1645-1661)
- हरकिशन साहिब (1661-1664)
- तेगबहादुर (1664-1675)
- गोविन्द सिंह (1675-1699)
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